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भारत के जमींदोज बौद्ध - स्थलों को जमीन पर उतारने वाले एलेक्जेंडर कनिंघम कौन थे जाने।

बौद्ध चीनी यात्रियों का हाथ में यात्रा - वृत्तांत लिए जंगल - जंगल, पहाड़ - पहाड़, गली - गली की खाक छानकर भारत के जमींदोज बौद्ध - स्थलों को जमीन पर उतारने वाले भारतीय पुरातत्व के जनक एलेक्जेंडर कनिंघम का आज जन्मदिन है। एलेक्जेंडर कनिंघम जन्म इंग्लैंड में 23 जनवरी सन् 1814 ई में हुआ था। अपने सेवाकाल के प्रारंभ से ही भारतीय इतिहास में इनकी काफी रुचि थी और इन्होंने भारतीय विद्या के विख्यात शोधक जेम्स प्रिंसेप की, प्राचीन सिक्कों के लेखों और खरोष्ठी लिपि के पढ़ने में पर्याप्त सहायता की थी। मेजर किट्टो को भी, जो प्राचीन भारतीय स्थानों की खोज का काम सरकार की ओर से कर रहे थे, इन्होंने अपना मूल्यवान् सहयोग दिया। 1972 ई. में कनिंघम को भारतीय पुरातत्व का सर्वेक्षक बनाया गया और कुछ ही वर्ष पश्चात् उनकी नियुक्ति (उत्तर भारत के) पुरातत्व-सर्वेक्षण-विभाग के महानिदेशक के रूप में हो गई। इस पद पर वे 1885 तक रहे।

ब्रिटिश सेना के बंगाल इंजीनियर ग्रुप में इंजीनियर थे जो बाद में भारतीय पुरातत्व, ऐतिहासिक भूगोल तथा इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनको भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग का जनक माना जाता है। इनके दोनों भ्राता फ्रैन्सिस कनिंघम एवं जोसफ कनिंघम भी अपने योगदानों के लिए ब्रिटिश भारत में प्रसिद्ध हुए थे। भारत में अंग्रेजी सेना में कई उच्च पदों पर रहे और 1861 ई. में मेजर जनरल के पद से सेवानिवृत्त हुए। इन्हें इनके योगदानों के लिए 20 मई, 1870 को ऑर्डर ऑफ स्टार ऑफ इंडिया (सी.एस.आई) से सम्मानित किया गया था। बाद में 1878 में इन्हें ऑर्डर ऑफ इंडियन एम्पायर से भी सम्मानित किया गया। 1887 में इन्हें नाइट कमांडर ऑफ इंडियन एंपायर घोषित किया गया।

पुरातत्व विभाग के उच्च पदों पर रहते हुए कनिंघम ने भारत के प्राचीन विस्मृत इतिहास के विषय में काफी जानकारी संसार के सामने रखी। प्राचीन स्थानों की खोज और अभिलेखों एवं सिक्कों के संग्रहण द्वारा उन्होंने भारतीय अतीत के इतिहास की शोध के लिए मूल्यवान् सामग्री जुटाई और विद्वानों के लए इस दिशा में कार्य करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। कनिंघम के इस महत्वपूर्ण और परिश्रमसाध्य कार्य का विवरण पुरातत्व विषयक रिपोर्टो के रूप में, 23 जिल्दों में, छपा जिसकी उपादेयता आज प्राय: एक शताब्दी पश्चात् भी पूर्ववत् ही है।

चौखंडी स्तूपा

कनिंघम ने प्राचीन भारत में आनेवाले यूनानी और चीनी पर्यटकों के भारतविषयक वर्णनों का अनुवाद तथा संपादन भी बड़ी विद्वता तथा कुशलता से किया है। चीनी यात्री युवानच्वांग (7वीं सदी ई.) के पर्यटनवृत्त का उनका सपांदन, विशेषकर प्राचीन स्थानों का अभिज्ञान, अभी तक बहुत प्रामाणिक माना जाता है। 1871 ई.में उन्होंने 'भारत का प्राचीन भूगोल' (एंशेंट ज्योग्रैफ़ी ऑव इंडिया) नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी जिसका महत्व आज तक कम नहीं हुआ है। इस शोधग्रंथ में उन्होंने प्राचीन स्थानों का जो अभिज्ञान किया था वह अधिकांश में ठीक साबित हुआ, यद्यपि उनके समकालीन तथा अनुवर्ती कई विद्वानों ने उसके विषय में अनेक शंकाएँ उठाई थीं। उदाहरणार्थ, कौशांबी के अभिज्ञान के बारे में कनिंघम का मत था कि यह नगरी उसी स्थान पर बसी थी जहाँ वर्तमान कौसम (जिला इलाहाबाद) है, यही मत आज पुरातत्व की खोजों के प्रकाश में सर्वमान्य हो चुका है। किंतु इस विषय में वर्षो तक विद्वानों का कनिंघम के साथ मतभेद चलता रहा था और अंत में वर्तमान काल में जब कनिंघम का मत ही ठीक निकला तब उनकी अनोखी सूझ-बूझ की सभी विद्वानों को प्रशंसा करनी पड़ी है।

अशोका स्तंभ


एलेक्जेंडर कनिंघम ने नवंबर 1873 में भरहुत स्तूप की खोज की थी. एलेक्जेंडर कनिंघम ने नवंबर 1874 में भरहुत स्तूप के अवशेषों को क्रमबद्ध किया था. एलेक्जेंडर कनिंघम ने नवंबर 1875 में बिहार के शहर सासाराम स्थित अशोक के शिलालेख देखने के लिए यात्रा की थी. पहली बार एलेक्जेंडर कनिंघम ने ही खुदाई कर बताया था कि यह सारनाथ है, जहाँ बुद्ध ने प्रथम उपदेश दिया था. वो एलेक्जेंडर कनिंघम थे, जिन्होंने नालंदा महाविहार को जमीन से बाहर निकाला। अलेक्जेंडर कनिंघम विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. उन्होंने भारत में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की न केवल आधारशिला रखी बल्कि भारत की प्राचीन गौरवमयी विरासत को ज़मीन के अंदर से बाहर कर दिया. विश्व भारत की प्राचीन विरासत को देखकर चकित रह गया. अपने कार्य के प्रति वफादारी और यूरोपियन होकर भी भारत के प्रति असीम प्यार अतुलनीय है।

धामेक स्तूप सारनाथ

सर अलेक्जेंडर कनिंघम को भारत मे भरहुत स्तूप के अवशेषों पर रिसर्च के बाद आर्कियोलॉजिकल ऑफ इंडिया विभाग की स्थापना की जिससे बाद में बहुत से महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों की खोज हुई और पक्के तौर पर जानकारी हुई जिसको पूर्व में लिखे गए चीन जापान श्रीलंका के अभिलेखों से अध्यन करके पुरातत्व अवशेषों की खुदाई हुई। बहुत से टीले खंडहर खोदे गए और बौद्ध काल की सभ्यता के बारे में अच्छी तरह पता चला। कनिंघम साहब अंग्रेज के हम सब बहुत आभारी व एहसानमन्द रहेंगे अन्यथा हम लोगों को शायद बौद्ध कालीन चिह्नों के दर्शन नही हो पाते। बोधगया के वर्तमान बोधिवृक्ष के एक बड़े अंश को भी पुनः उगाने का श्रेय भी लार्ड कनिघम को है। लार्ड कनिघम ने ही श्रीलंका के 2250 वर्ष पुराने बोधिवृक्ष (जिसे सम्राट अशोक के पुत्र महेंद्र ने 2250 वर्ष पूर्व श्रीलंका के अनुराधापुरम में स्थापित किया था।) की टहनी को मंगवाकर सन 1876 में बोधगया में स्थापित करवाया। लार्ड कनिघम और जोसेफ प्रिंसेप जिन्होंने सबसे पहले सम्राट अशोक के शिलालेखों को पढ़ा था।

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